Natasha

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राजा की रानी

कमललता ने हँसकर कहा, “नहीं, सुनार-बनियाँ। पर तुम्हारे निकट तो कोई प्रभेद नहीं है- दोनों ही एक हैं।”


“कम-से-कम मेरे निकट तो एक ही हैं। दोनों ही एक क्यों बल्कि सबके एक हो जाने पर भी कोई नुकसान नहीं।”

वैष्णवी ने कहा, “ऐसा ही तो लगता है। तुमने तो गौहर की माँ के हाथ का भी खाया है।”

“उन्हें तुम नहीं जानतीं। गौहर बाप की तरह का नहीं है, उसे अपनी माँ का स्वभाव मिला है। इतना शान्त, अपने को भूला हुआ, ऐसा अच्छा मनुष्य कभी देखा है? उसकी माँ ऐसी ही थी। एक बार बचपन में गौहर के पिता के साथ उनके झगड़े की बात मुझे याद है। उन्होंने किसी को छिपाकर बहुत से रुपये दे दिये थे। इसी वजह से झगड़ा खड़ा हुआ। गौहर के पिता बदमिजाज आदमी थे। हम तो डर के मारे भाग गये। कुछ घण्टे बाद धीरे-धीरे आकर देखा कि गौहर की माँ चुपचाप बैठी हैं। गौहर के पिता के बारे में पूछने पर पहले तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। पर हमारे मुँह की ओर ताकते हुए वे एक बार खिलखिलाकर हँस पड़ीं। ऑंखों से पानी की कुछ बूँदें नीचे गिर पड़ीं। यह उनकी आदत थी।”

वैष्णवी ने प्रश्न किया, “इसमें हँसने की कौन-सी बात हुई?”

“हमने भी तो यही सोचा। पर जब हँसी रुक गयी तो वे धोती से ऑंखें पोंछ कर बोलीं, “मैं कैसी मूर्ख औरत हूँ बेटा! वे तो मजे से पेट भर कर खुर्राटे ले रहे हैं, और मैं बिना खाये उपवास कर गुस्से में जल-भुन रही हूँ, बताओ, इसकी क्या जरूरत है!” और इस कहने के साथ ही उनका सारा अभिमान और क्रोध धुल-पुँछकर साफ हो गया। यह भुक्तभोगी के अलावा और कोई नहीं जानता कि औरतों का यह कितना बड़ा गुण है!”

वैष्णवी ने प्रश्न किया, “तुम क्या भुक्तभोगी हो, गुसाईं?”

मैं कुछ सिटपिटा गया। यह नहीं सोचा था कि उसको छोड़कर यह प्रश्न मेरे ही सिर आ पड़ेगा। कहा, “सब क्या खुद ही भोगना पड़ता है कमललता, दूसरों को देखकर भी तो सीखा जाता है। इस मोटी भौंहों वाले आदमी के निकट क्या तुमने कुछ नहीं सीखा?”

वैष्णवी ने कहा, “पर वह तो मेरे लिए पराया नहीं है।”

और कोई प्रश्न अब मेरे मुँह से नहीं निकला-बिल्कुमल निस्तब्ध हो गया।

वैष्णवी खुद भी कुछ देर चुप रही। फिर हाथ जोड़कर बोली, “तुमसे विनती करती हूँ गुसाईं, एक बार मेरी शुरू की बातें सुन लो...”

“अच्छी बात है, कहो।”

पर जब कहने चली तो देखा कि कहना उतना आसान नहीं है। मेरी तरह मुँह नीचा किये हुए उसे भी काफी देर तक चुप रहना पड़ा। पर उसने हार नहीं मानी। अन्तर्द्वन्द्व में विजयी होकर जब उसने एक बार मुँह ऊपर उठाकर देखा तो मुझे भी ऐसा लगा कि उसके स्वाभाविक सुश्री चेहरे पर मानो एक खास चमक आ गयी है। बोली, “अहंकार मर कर भी नहीं मरता गुसाईं! हमारे बड़े गुसाईं कहते हैं कि यह मानो फूस की आग है जो बुझकर भी नहीं बुझती। राख हटाते ही नजर आता है कि धक-धक धधक रही है, पर इसीलिए इसे फूँक देकर बढ़ा तो नहीं सकती। फिर तो मेरा इस पथ पर आना ही मिथ्या हो जायेगा। सुनो। किन्तु औरत हूँ न, इसलिए शायद सब बातें खोलकर न भी कह सकूँ।”

मेरे संकोच की सीमा न रही। अन्तिम बार विनती कर कहा, “औरतों के पैर फिसलने के विवरणों में मुझे दिलचस्पी नहीं है, उत्सुकता भी नहीं, और उन्हें सुनना मुझे कभी अच्छा भी नहीं लगा कमललता। मुझे नहीं मालूम कि तुम्हारी वैष्णव-साधना में अहंकार के नाश के लिए कौन से मार्ग का निर्देश महाजनों ने किया है, पर अपने गुप्त पापों को अनावृत्त करने की स्पर्ध्दित विनय ही अगर तुम्हारे प्रायश्चित्त का विधान हो, तो तुम्हें अनेक-व्यक्ति मिल जाँयगे जिन्हें ऐसी सब कहानियाँ सुनना बहुत रुचिकर लगता है। मुझे माफ करो, कमललता, इसके अलावा मैं शायद कल ही चला जाऊँगा, शायद फिर जीवन में कभी हम लोगों की मुलाकात भी नहीं होगी।”

वैष्णवी ने कहा, “तुमसे तो पहले ही कहा है गुसाईं, प्रयोजन तुम्हारा नहीं, मेरा है, पर यह क्या तुम सच कह रहे हो, कल के बाद हमारी मुलाकात नहीं होगी? नहीं ऐसा कभी नहीं हो सकता। मेरा मन कहता है कि फिर मुलाकात होगी- मैं यही आशा लेकर रहूँगी। पर क्या वास्तव में मेरे बारे में कुछ भी जानने की इच्छा तुम्हारी नहीं है? हमेशा क्या सिर्फ एक अनुमान और सन्देह को ही लिये रहोगे?”

प्रश्न किया, “आज वन में जिस आदमी से मेरी मुलाकात हुई, जिसे तुम आश्रम में घुसने नहीं देतीं, जिसके उपद्रव से तुम भागना चाहती हो- वह क्या वास्तव में तुम्हारा कोई नहीं होता? बिल्कुनल पराया है?”

“किस के डर से भाग रही हूँ, यह तुम समझ गये गुसाईं?”

“हाँ, ऐसा ही तो लगता है। पर वह है कौन?”

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